आजादी के 60 वर्षों में हमने अपनी खाने की आदतों के बारे में क्या विचार किया इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि हम बेहिसाब खाने वाला देश बन गए। हमारी संस्कृति और सभ्यता में खान-पान आकर्षण का विषय रहा लेकिन विगत एक दशक में पश्चिमी संस्कृति हमारी खानपान शैली पर कुछ ज्यादा ही हावी हो गई। तभी तो कोलकाता चिप्स की राजधानी हो गई और बैंगलूर नूडल्स का, चेन्ने बिस्कुट का और मुंबई भेल से वड़ा-पाव की राजधानी बन गई।
जंक फूड से फूलता पेट नजर तो आ रहा है किन्तु आकार और गंध का आकर्षण मोटापे को खुला आमंत्रण दे रहा है। आज खाद्य सामग्री लगातार भारी मात्रा में और आकर्षक तरीके से हमारे जीवन में घुसपैठ कर चुकी है। अस्वास्थ्यप्रद भोजन की बढ़ती लत ने मोटापा बढ़ाया। फिर मोटापे से अन्य रोगों में भी बढ़ोतरी होती गई।
हम लोग अपने आसपास के माहौल का शिकार होते जा रहे हैं। 50 प्रतिशत लोग अनियमित समय में चार बार खाते हैं इनमें सेहत के लिए हानिकारक नमकीन वगैरह की मात्रा ज्यादा होती है।
फास्ट फूड का क्रेज महानगरों से कस्बों तक घुसपैठ कर चुका है। पकौड़ा,समोसा, कचौरी, नूडल्स, पिज्जा, बर्गर, पावभाजी, पेस्ट्री, चिप्स खाने वाले शहरी बच्चे मोटापे से पीड़ित हो रहे हैं किन्तु आदी हो चुके हैं। कोल्डड्रिंक्स और आइसक्रीम की मांग बढ़ रही है। फल पौष्टिक हैं। बावजूद इसके लोग कभी भी चाय-काफी के साथ बिस्कुट खाते हैं, शायद यह भूलकर कि बिस्कुट आसानी से नहीं पचते। सैर-सपाटे के दौरान फास्टफूड ज्यादा चलता है।
खाने की इस दीवानगी के बीच पौष्टिक आहार की अनदेखी हो रही है। दाल-रोटी, पराठा खिचड़ी के शौकीन घट रहे हैं। तेल और मक्खन की मात्रा बढ़ रही है, दही की मांग घट रही है। छांछ पिछड़ रही है। लस्सी एक सीमित वर्ग का पेय बन कर रह गई है।
टीवी बिगाड़ रहा है खानपान संस्कृति। सड़कों के किनारे खोमचे भीड़ जुटा रहे हैं। चटपटे खाने के शौकीन चटपटा खा रहे हैं। मॉलों और मल्टीप्लेक्स में भी आकर्षण का केन्द्र हैं खान-पान के स्टॉल। आधुनिक कैफे में चर्चा की जगह चकल्लस और फटाफट भोजन का क्रेज स्पष्ट नजर आ रहा है। महंगे स्कूलों की केन्टीन में बच्चे वेस्टर्न स्टाल में डिब्बाबंद भोजन खा रहे हैं। द्घर का भोजन टेस्टलेस लगने लगा है। हर कहीं फटाफट भोजन की दुकानों से उठने वाली तीखी गंध महसूस की जा सकती है।
इन चीजों को जिस खूबसूरती से ग्राहकों तक पहुंचाया जा रहा है वह भी ध्यान देने योग्य है लेकिन हमें इस ओर सोचने की फुर्सत नहीं है। बाहर खाने-खिलाने का फैशन कहिए या नई आदत, बढ़ रही हैं। रेस्टांरेंट का बदलता हुआ रूप आकर्षण बढ़ा रहा है। अब मौके की तलाश का दौर नहीं बल्कि मूड का जमाना हो गया है।
हम जरूरत से ज्यादा इसलिए नहीं खा रहे कि हम भूखे हैं या फिर डिब्बाबंद खाना बहुत स्वादिष्ट है। वजह है बदलता परिवेश और बदलती हुई जीवनशैली। 24 द्घंटे में चार बार खाने की आदत वर्षों पुरानी है। फर्क सिर्फ इतना आया है कि पहले स्वादिष्ट एवं पौष्टिक भोजन हम सभी का पसंदीदा भोजन था। अब तीखी गंध, चटपटा स्वाद और तैलीय भोजन हमारी कमजोरी बन चुका है।
क्या खाएं, क्या न खाएं सोचने की जरूरत ही कहां रह गई। सांझ हुई नहीं कि सड़क किनारे भीड़ जुटनी शुरू हो जाती है। कुछ तो रोजाना खाने वाले नियमित ग्राहक भी बन चुके हैं। गरमा-गरम चटपटे व्यंजन, डोसा, सांभर वड़ा, इडली पीछे छूट रहे हैं। पसंदीदा जंक फूड आगे बढ़ चुका है और बढ़ा रहा है मोटापा। अनियमित खानपान का शिकार है यंग इंडिया। टीवी बदल चुका है हमारे बच्चों के खान-पान की %E